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कविता

रविवार

महेश वर्मा


रविवार को देवता अलसाते हैं गुनगुनी धूप में
अपने प्रासाद के ताख़े पर वे छोड़ आए हैं आज
अपनी तनी हुई भृकुटी और जटिल दंड-विधान

नींद में मुस्कुराती किशोरी की तरह अपने मोद में है दीवार-घड़ी

ख़ुशी में चहचहा रही है घास और
चाय की प्याली ने छोड़ दी है अपनी गंभीर मुख-मुद्रा

कोई आवारा पहिया लुढ़कता चला जा रहा है
वादियों की ढलुआ पगडंडी पर

यह खरगोश है आपकी प्रेमिका की याद नहीं
जो दिखा था, ओझल हो गया रहस्यमय झाड़ियों में

यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में

हम अपनी थकान को बहने देंगे एड़ियों से बाहर
नींद में फैलते ख़ून की तरह

हम चाहेंगे एक धुला हुआ कुर्ता-पायजामा
और थोड़ी सी मौत

 

 


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